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जोर का झटका धीरे से

समय की पुकार
समय की पुकार
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आज जब सुबह अखबार पढने बैठा तो एक समार पढ कर हंंसी भी आयी और गुस्सा भी आया। वह समाचार था प्रचार के भूखे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव की पीडा का। जिसमें उन्हाेने कहा था कि ʺहम काम तो बहुत करते हैं ओर कर रहे हैं लेकिन उसका प्रचार नहीं कर पा रहे हैं।ʺ यह पीडा उन्होने तब व्यक्त की है जब कि इधर कई महीनेां से देखा जा रहा है कि जिले स्तर के छोटे छोट कार्यक्रमों का समाचार भी विज्ञापनों के रूप में पिता पुत्र की फोटो के साथ समाचार पत्रों में प्रकाशित किये जा रहे है। करोंडो करोड रूपये आम जनता की करों के खर्च करने के बावजूद अगर कोई मुख्यमंत्री यह कहे कि वे अपने कार्यक्रमों का ʺ गुणगान ʺ नहीं कर पा रहे हैं तो इसके बारे में पढ और सोच कर हंसी और गुस्सा नहीं आयेगा तो क्या होगा।

दूसरा समाचार जब नेट खोला तो यह मिला कि सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश दे दिया कि ʺ अब से सरकारी विज्ञापनों में नेताओं की फोटो नहीं छपेगी।ʺ मुझे लगा कि आखिर वह कौन सा तार या बेतार हे जो हमारी अन्तरात्मा की आवाज को सुप्रीम कोर्ट के उस माननीय न्यायाधीश तक पहुंच गयी जिसने हमारी पीडा को समझा और यह आदेश दे दिया। मैं इसके लिए लाख लाख सुक्रिया अदा करना चाहूंगा। यह आदेश सीनियर वकील प्रशांत भूषण और उनकी एनजीओ की एक याचिका पर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद अब लगता है कि अखिलेश यादव जी केा जोर का झटका घीरे से लगा होगा।

अक्सर देखा जाता है कि जो सरकारी विज्ञापन प्रकाशित कराये जाते हैं उसका मकसद ही होता है कि अपने कामों को जनता तक पहुचाना। यह सूचना परक भी होता है और स्वार्थ परक भी। सूचना परक इस मायने मे होता है कि सरकारी योजनाओं को आम जनता तक पहुंचना होता है और इसका माध्यम सरकारी मीडिया के अलावा गैर सरकारी माध्यम भी होते हैं। लेकिन सरकारी माध्यमों पर लाेगों का भरोसा इधर कुछ वर्षों से डिगा है। लोग सरकार की कही बातों पर विश्वास कम करते है। शायद अखिलेख यादव जी को यही बात साल रही होगी कि इतना रूपया हम विज्ञापनों पर खर्च कर रहे हैं लेकिन जनता तक हमारी आवाज पहुंच नहीं पा रही है। अगर इतना पैसा खर्च करके जब सरकार अपनी आवाज को आम जनता तक नहीं पहुंचा पा रही है तो फिर इसमें किसका दोष हैॽ या तो जनता तक सही तरीके से बात नहीं पहुंचायी जा रही है या फिर जनता सब कुछ जान रही है और वह अनर्गल बातों पर विश्वास नही कर रही है। फिर प्रश्न उठता है कि आखिर तब विज्ञापन प्रकाशित ही क्यों करवाये जाते हैंॽ इसका उत्तर भी यही हो सकता है कि सरकार प्रचार की भूखी है और उसका ध्यान काम पर कम प्रचार पर ज्यादा हेाता है। इसके लिए वह करोडो रूपये इस लिए फूंकती है ताकि लोग उसके काम को भले ही तरजीह न दें लेकिन उसके चेहरे पर जरूर गौर करते रहें। कभी कभी देखा गया है कि अगर कार्यक्रम सरकारी होता है तो उसमें सरकार के नुमाइंदों के फोटो छपे तो एक बार बात समझ में आती है लेकिन इनके साथ पाट्री के नेताओं पदाधिकारियों और स्थानीय नेताओं के फोटो प्रकाशित करने का मकसद क्या हो सकता है यहीं न कि कुछ प्रचार अपना हो तो कुछ सरकारी खर्चे पर अपनी पार्टी और अपने नेतओं का भी हो जाय। इसके लिए अपने कुछ खास अखबारों और मीडिया चैनलों को भी उपकृत किया जाता है इस भरोसे में कि अगर वह उनकी तारीफ न करे तो कम से कम खिलाफत भी न करे। शायद इसी बात को ध्यान में रखकर प्रशांत भूषण जी ने मामला कोर्ट तक ले जाने की सोची। अब देखना है कि माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन किस हद तक होता है और हेाता भी है नहीं। जैसा कि माननीय सुप्रीम कोट ने कहा है कि विज्ञापनों मे अब सिर्फ प्रधान मंत्री और राष्र्ट्रपति तथा मुूख्य न्यायाधीश की फोटो ही लगायी जा सकती है और इसके लिए भी संबंधित लोगों से अनुमति ली जानी होगी।

अगर माननीय सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश लागू हो गया तो अखबारों की आमदनी भी घट जायेगी । क्येांकि नेताओं की फोटों न लगने से विज्ञापन भी कम ही जारी होगें । इस प्रकार से जहां जनता की गाढी कमाई से दिये गये करों का अनाप शनाप खर्च नहीे होगा और विज्ञापनों पर होने वाले खर्च को बचा कर दूसरे कल्याण कारी या देश के विकास के कामों में खर्च किया जायेगा। हम सुप्रीम कोट औ प्रशांत भूषण जी दोनें के आभारी है।

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